सर्दी की खिली धूप में,
बादल की तैरती नौका,
में देखा है उसका होना,
सौंफ की क्यारियों में,
मोनार्क के संतरी पंखों में,
खोकर पाया है उसे,
तन्हा अलाव की तपिश में,
हीर गाते हुए,
फकीर की आँखें,
थम जाती हैं,
शब्द पिघलने लगते हैं,
आह! उसका होना,
मूँगफली के छिलकों,
की तरह पैरो तले चरमराये,
उसके थके बदन ने,
करवट की पीड़ा में,
महसूस किया उसका होना,
सूरजमुखी के घूमते मुखड़े में छिपा कभी,
एक नन्हे बच्चे सा,
धान की पुआलड,
पर लुढ़क गया,
सोने की नथनी में मोती सा थर्राता,
कच्चे घड़े की खुशबू में,
मेहँदी की खुशबू सा मिलाता,
देखा है, सहज रूप में उसे,
बचपन से,
जो मंदिर की घंटियों,
मस्जिद की अजानों,
गुरुद्वारे के लाउडस्पीकर के शोर में,
अब नजर नहीं आता !